जन्म से पहले पता करें कि बच्चे को थैलेसिमिया तो नहीं
सेहतराग टीम
इंसानी शरीर को सही तरीके से विकसित होने के लिए खून में लाल रक्त कोशिकाओं की सख्त जरूरत होती है और हर स्वस्थ्य व्यक्ति के शरीर में मौजूद बोन मैरो ये कोशिकाएं स्वाभाविक रूप से जीवन पर्यंत बनती रहती हैं। मगर दुनिया में कई लोग ऐसे भी होते हैं जिन्हें प्रकृति का यह वरदान हासिल नहीं होता है और वो जन्म से ही एक दुर्लभ किस्म की बीमारी के साथ पैदा होते हैं जिसके कारण उनके शरीर में लाल रक्त कोशिकाएं नहीं बनतीं। ये दुर्लभ बीमारी है थैलेसिमिया जो कि जिनेटिक बीमारी है जिसमें बोन मैरो लाल रक्त कोशिकाएं बनाने में असमर्थ हो जाता है और इसके कारण शरीर का विकास प्रभावित होता है। इस बीमारी से पीड़ित लोगों को जीवन पर्यंत ब्लड ट्रांसफ्यूजन यानी कि बाहर से खून चढ़ाने तथा अन्य उपचारों की जरूरत पड़ती है। बोन मैरो ट्रांसप्लांट के जरिये इसका इसका स्थाई इलाज किया जा सकता है मगर ये बेहद जटिल प्रक्रिया है।
क्या है बीटा थैलेसिमिया
दूसरी ओर कई लोग बीटा थैलेसिमिया से पीड़ित होते हैं जिन्हें थैलेसिमिया का वाहक या कैरियर भी कहा जाता है। इसमें मरीज के शरीर में हीमोग्लोबिन का उत्पादन कम हो जाता है। हीमोग्लोबिन लाल रक्त कोशिकाओं में आयरन पहुंचाने वाला प्रोटीन है जो कि इन कोशिकाओं में ऑक्सीजन की आपूर्ति करता है। हीमोग्लोबिन कम होने का अर्थ है कि शरीर के कई हिस्सों में ऑक्सीजन की कमी हो सकती है। खास बात यह है कि थैलेसिमिया के मरीज के विपरीत बीटा थैलेसिमिया के मरीज अपना जीवन सामान्य रूप से बिना किसी क्लिनिकल इलाज के जी सकते है।
दुनिया में फैलाव
हर वर्ष दुनिया में 288000 नए मामले जिनमें से 60 हजार नवजात होते हैं, के साथ थैलेसेमिया दुनिया की सबसे दुष्कर बीमारी मानी जाती है। इटली, ग्रीस जैसे मैडिटेरेनियन देशों में इसके भारी प्रसार के कारण इसे मैडिटेरेनियन एनिमिया भी कहा जाता है। आंकड़े बताते हैं कि पूरी दुनिया में इस समय करीब डेढ़ करोड़ लोग थैलेसिमिया से पीड़ित हैं। इसके अलावा पूरी दुनिया में करीब 24 करोड़ लोग बीटा थैलेसिमिया के वाहक हैं जो कि दुनिया की जनसंख्या का करीब डेढ़ फीसदी हिस्सा होता है। भारत में हर 25 में से एक व्यक्ति थैलेसिमिया का वाहक है।
भारत में क्या है स्थिति
इस बीमारी के बारे में इंडियन मेडिकल एसोसिएशन के पूर्व अध्यक्ष डॉक्टर के.के. अग्रवाल कहते हैं कि भारत में इस समय करीब 35 लाख वयस्क लोग थैलेसिमिया से पीड़ित हैं। ये वक्त की जरूरत है कि हम लोगों में इस बीमारी को लेकर जागरूकता फैलाएं। ये बीमारी क्या है और कैसे इससे बचाव हो सकता है ये जानना जरूरी है। ये आज की जरूरत है कि माता-पिता की जांच के लिए जैविक काउंसिलिंग अनिवार्य की जाए ताकि उनके परिवार में दूसरे बच्चे इस बीमारी के वाहक न बनें। इस बीमारी के बारे में फैले मिथकों को दूर करने की भी जरूरत है।
क्या हैं लक्षण
दरअसल थैलेसिमिया माता-पिता के जीन से बच्चों तक पहुंचने वाली सबसे आम बीमारी है। बच्चे में इसके लक्षण कमजोरी, थकान, धीमे विकास, पीलापन लिए चेहरा, अस्वाभाविक सूचन, अस्वाभाविक हड्डी संरचना (खासकर चेहरे और खोपड़ी की), हृदय की समस्याएं और आयरन की अधिकता के रूप में दिखते हैं। बच्चे इस बीमारी से पीड़ित होकर न पैदा हों इसके लिए इसके बारे में मां-बाप का जागरूक होना बेहद जरूरी है।
नीतिगत बदलाव जरूरी
डॉक्टर अग्रवाल कहते हैं, दूसरी किसी भी बीमारी की तरह, स्वास्थ्य की गुणवत्ता और न्याय के लिए थैलेसिमिया के मामले में देश में नीतिगत बदलाव की तत्काल जरूरत है। भारत में कई बच्चे और बड़े इस बीमारी से दम तोड़ रहे हैं क्योंकि इसकी महंगी दवा और इलाज तक उनकी पहुंच ही नहीं है। हमें एक ऐसी नीति की जरूरत है जिसके तहत देश के हर नुक्कड़ तक इस बीमारी की दवा और इलाज की मुफ्त आपूर्ति हो सके।
जन्म से पहले कराएं टेस्ट
ये जानना जरूरी है कि थैलेसिमिया आनुवंशिक बीमारी है और इसे रोका जा सकता है मगर इसे दवाओं से ठीक नहीं किया जा सकता। यह जानने के लिए कौन सा व्यक्ति इस बीमारी का वाहक है खून की जांच जरूरी है। गर्भवती महिलाओं में जन्म से पहले पेरेंटल टेस्ट से यह जानकारी जुटाई जा सकती है। यदि माता-पिता दोनों को यह समस्या है तो बच्चे के जन्म से पहले डॉक्टर की सलाह जरूर लेनी चाहिए।
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